बिश्नोई संप्रदाय की विवाह पद्धति: एक अनूठा सांस्कृतिक संस्कार
भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत में बिश्नोई समुदाय की विवाह प्रणाली अपनी आध्यात्मिकता, पर्यावरण-चेतना और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के लिए विशिष्ट स्थान रखती है। बिश्नोई संप्रदाय की विवाह प्रणाली अन्य समाजों से विशिष्ट और उत्कृष्ट है। इसे जाम्भाणी विवाह पद्धति के नाम से भी जाना जाता है, जिसमें चैजुगी, मंगलाष्टक, गौत्रचार, वसन्दर के नाम, साखोचार, चैरासी बोल, ध्रुव स्तुति जैसे वैदिक मंत्रों का पाठ और रीति-रिवाजों का विधिवत पालन किया जाता है। इस पद्धति में कई विशेष रस्मों का पालन किया जाता है।
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जाम्भाणी विवाह पद्धति का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य/ हस्तलिखित विवाह पद्धतियां:
बिश्नोई विवाह परंपरा मौखिक रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी संरक्षित रही, लेकिन 18वीं शताब्दी से हस्तलिखित जाम्भाणी विवाह पद्धति की पट्टिकाएँ मिलनी शुरू हुईं। सबसे पुरानी हस्तलिखित प्रति प्रसिद्ध संत कवि परमानंदजी बिनियाल द्वारा लिपिबद्ध की गई मानी जाती है। बाद के वर्षों में दर्जनों जाम्भाणी संत कवियों द्वारा विवाह पाटी लिपिबद्ध किया गया। इनमें मयारामदासजी (लिपिबद्ध वि.सं. 1849), बिहारीदासजी (लिपिबद्ध वि.सं. 1902-03), गोविंदरामजी (लिपिबद्ध वि.सं. 1907), साहबरामजी राहड़ (लिपिबद्ध वि.सं. 1940), संतोषदासजी (लिपिबद्ध वि.सं. 1952) तथा कई अज्ञात लेखकों के नाम शामिल हैं।
समय के साथ इन ग्रंथों को व्यवस्थित कर वर्ष 2013 में, रूड़कली श्रीमहन्त शिवदासजी शास्त्री द्वारा संपादित एवं जांभाणी साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित "बिश्नोई विवाह पाटी" का प्रकाशन हुआ, जो सभी प्राचीन प्रतियों के अध्ययन और वर्तमान प्रथाओं को क्रमबद्ध रूप से प्रस्तुत करती है।
- मयारामदासजी (वि.सं. 1849)
- बिहारीदासजी (वि.सं. 1902-03)
- गोविंदरामजी (वि.सं. 1907)
- साहबरामजी राहड़ (वि.सं. 1940)
- संतोषदासजी (वि.सं. 1952)
- शिवदासजी शास्त्री (वि.सं. 2069)
श्रीमहन्त शिवदासजी शास्त्री लिखते हैं कि-
जांभाणी विवाह पाटी को इस उद्देश्य से प्रकाशित किया गया है ताकि प्रत्येक व्यक्ति विवाह संस्कार को समझ सके और उसे उत्साह और शांति के साथ सम्पन्न कर सके।
बिश्नोई विवाह संस्कार का विधि-विधान/ विवाह की रस्में:
बिश्नोई विवाह में पर्दा मंत्र, गांठ मंत्र, हथलेवा मंत्र, सबदवाणी पाठ, कलश पूजा, दशावतार पाठ आदि चरणों का सूक्ष्मता से पालन किया जाता है।
विवाह कार्यक्रम में सबसे पहले सन्त को घर बुलाकर घर में गुरु जम्भेश्वर भगवान की सबदवाणी के 120 सबदों का पाठ करवाना तथा पाहल बनवाना चाहिए। इस समय सम्पूर्ण परिवार वाले पाहल ले और घर में पाहल का छिड़काव कर पवित्र करें। इसके बाद ही विवाह कार्यक्रम की शुरुआत करनी चाहिए। जो समारोह की आध्यात्मिक शुरुआत का प्रतीक है।
बिश्नोई संस्कृति के अनुसार विवाह का समय गोधूली वेला (सायं 6 से 9 बजे तक) को उत्तम माना गया है। यह बात डोरा बांधने वाले को ध्यान में रखनी चाहिए। इसका कारण यह है कि गोधूली वेला ब्रह्म मुहूर्त का समय माना जाता है।
जब विवाह समारोह का कार्य शुरू होता है तो सबसे पहले वधू परिवार वाले ही इस समारोह की शुरुआत करते हैं। जिस घर परिवार मे लड़की का विवाह करना है, उस लड़की के परिवार वाले यानि माता-पिता इस कार्यक्रम को अपने घर से शुरू करते हैं। सर्वप्रथम अपने घर को नया रूप दिया जाता है। अपने सगे-संबंधियों को बुलाकर विवाह का दिन तय किया जाता है जिसको डोरा बांधना कहते हैं।
जिसमें अपने परिजनों, लड़की के मामा-मामी, सगे-संबंधी पास-पड़ौस के संबंधियों को आमंत्रित किया जाता है। जिससे सबको पता चल जाता है कि अमुक व्यक्ति के यहां अमुक दिन, अमुक वार, अमुक तारीख को लड़कियों के विवाह का कार्यक्रम है और जिसमें सबको सहयोग करना है। पास पड़ौस व संबंधी सहयोग करते भी हैं। विवाह समारोह के दिन पास-पड़ौस व संबंधी आकर के हलवा आदि तैयार कर लेते हैं जिससे सारी तैयारी एक साथ हो जाती है।
डोरा बांधना:
यह रस्म विवाह की तारीख तय करने के लिए की जाती है। डोरा बांधने की प्रकिया में डोरा (कच्चे सूत का धागा) को हल्दी से रंगा जाता है। उसके बाद उस धागे में चांदी का तुस पिरोया जाता है। उसके बाद धागे में गाठें लगाई जाती है। गांठ उतनी ही लगाई जाती है जितने दिनों के बाद विवाह समारोह का आयोजन तय होता है। प्रत्येक दिन एक-एक गांठ खोलते जाते हैं। पुराने समय में बारात डोरे के गांठ के अनुसार ही चढ़ जाती थी। डोरे के गांठ से यह पता चल जाता था कि अमुक वार, दिन व तारीख को विवाह का कार्यक्रम होगा।
उस धागे को रंगने के बाद नारियल में दस, बीस, पचास रूपये के साथ बांधकर एक सुती कपड़े का नातणा लेकर उसके चारों पल्लों को व बीचो-बीच भाग को हल्दी से रंग लेते हैं। नातणे के गांठ लगा दी जाती है। उस बंधे नारियल को लड़की पक्ष के दो चार सदस्य लड़के के घर ले जाते हैं। वर पक्ष के वहां बड़ी खुशी के साथ नारियल को स्वीकार किया जाता है। अपने संबंधियों को आमंत्रित करके सभी लोग आकर बैठ जाते हैं। तब नारियल लेकर आने वाले लोग अपने पास से नारियल को थैली में से निकालकर थाली रखकर लड़के वालों को देते हैं। लड़के वाले डोरे को बान कर ले हैं। नारियल लेकर आने वालो को वर पक्ष वाले खुशी में कुछ उपहार भेंट करते हैं। उसके बाद लड़की व लड़के वाले अपनी अपनी तैयारी में लग जाते हैं।
- कच्चे सूत के धागे को हल्दी से रंगा जाता है।
- इसमें चांदी का तुस पिरोया जाता है।
- विवाह की तिथि के अनुसार (विवाह तक शेष दिनों के अनुसार) इसमें गांठें लगाई जाती हैं। प्रतिदिन एक गांठ खोली जाती है, जो समय की गणना का पारंपरिक तरीका है।
- डोरे को नारियल, रुपए और सुती कपड़े से सजाकर वर पक्ष को भेजा जाता है, जो इसे स्वीकार कर विवाह की औपचारिक घोषणा करते हैं।
वर पक्ष की तैयारियां:
वर पक्ष वाले जान चढ़ाने की तैयारी में लग जाते हैं। वर पक्ष को वधू के लिए बरी (ड्रैस), श्रृंगार पेटी, सिर का बोल्डा (रखड़ी), कान में टोटी (टोप्स), पैर में पायल लाना अनिवार्य होता है। यदि ये वस्तुएं नहीं लाते हैं तो अच्छा नहीं माना जाता है। जिस लड़के का डोरा आता है उसको जान चढ़ने से तीन दिन पहले घी पिलाया जाता है तथा बाजोट बिठाने की रस्म अदा की जाती है। उस दिन से वह बींद अपने हाथ में एक तलवार, सिर पर साफा व एक पड़कन (अपना साथी) साथ में रखता है तथा पास पड़ौस के लोग उसको बन्दौला (भोजन देकर) उसके उत्साह को बढ़ाते हैं।
बन्दौला:
बन्दौला देने वाला दुल्हे के घर कहने के लिए आता है तो दुल्हे के घर वाले उसका निमंत्रण स्वीकार करते हुए उसको अपने घर से गुड़ देते हैं। जिससे यह तय माना जाता है कि बन्दौला अमुक के घर पर ही होगा। दुल्हे के घर वाले जो गुड़ देते है उससे ही दुल्हे के खाने के लिए लापसी बनाते हैं। भोजन तैयार होने के बाद दुल्हे को अपने घर से कुछ छोटे-बच्चे व बहन, भाभियां उसको गीत गाती हुई बंदोले वाले घर ले जाती है।
बन्दोले के समय दुल्हे के साथ एक व्यक्ति (नाई) साथ मे रहता है जो दिन को दुल्हे के चुनड़ी के मण्डप का पल्ला पकड़े रहता है और रात के समय बन्दौले में दुल्हे के आगे प्रकाश लिए चलता है। दूसरा व्यक्ति ढोली होता है जो ढोल बजाता हुआ दुल्हे को भोजन करने बाद वापिस अपने घर ले जाता है। साथ ही स्त्रियां भी गीत गाती हुई चलती है।
रातिजोगा व विवाह के गीत:
वर पक्ष वाले घर में जिस दिन जान चढ़ाएगे उस रात्रि को रात मे रातिजोगा व विवाह के गीत सुबह 4 बजे तक स्त्रियां गाती है। उसके बाद अपने रीति रिवाज के अनुसार कहीं-कहीं पर हलवा बनाकर के भी बांटती है। कहीं पर गुड़ बांटकर खुशी के गीत गाते हुए नाच-गाने भी होते है। यह सारा कार्यक्रम लड़का भी देखता है तथा वहां स्त्रियां बनड़े के हल्दी से पीठी भी करती है। पीठी को बहन, भाभियां चढाती है।
जान चढ़ना:
जिस दिन वर को वधू के घर जाना होता है उस दिन जान चढ़ने से दो घंटे पहले नाई वर को आटा, हल्दी, व तीली का तेल मिलाकर दुल्हे को स्नान करवाता है। पुराने कपड़े नाई ले जाता है तथा नया कपड़ा दुल्हे को पहना देता है। आटा, हल्दी व तेल से स्नान करना शुभ माना जाता है तथा वर का रूप निखर जाता है। नये कपड़ो में धोती, कुर्ता, सिर पर रंगीन मोलिया (साफा) पहनाया जाता है। श्रद्धानुसार कानों में सोने के गोखरू या मुर्की आदि पहनायी जाती है। गले में सोने की चैन या डोरा पहनाया जाता है। कहीं-कहीं पर रूपयों की माला भी डालते हैं तथा पैरों में नई पगरखी पहनाई जाती है। उसके बाद बीद को पीढे पर बैठाकर पीठी चढाई जाती है। पीठी बहन, भाभियां चढ़ाती है। पैर के ऊपर की ओर चढाती है। पीठी पैर, घूटने, सीना या छाती, कंधा तथा सिर पांच जगह पर हल्दी का तिलक लगाकर के चढाई जाती है। उसके बाद दुल्हे की माँ आरती करती है। आरती करते समय पड़ौस की स्त्रियां बच्चे आदि दुल्हे के पास मे खड़े रहते है। आरती करने के बाद बींद को उसकी माँ अपने स्तन से दूध पिलाने की रस्म अदा करती है। उसके बाद वर अपने घर से वधू के घर के लिए रवाना हो जाता है। दुल्हा रवाना होते समय साधु संतो, नाई, गायणा आदि को अपनी तरफ से नेक देता है। जिसमें 10 रुपये से अपनी इच्छानुसार नेक देने का रिवाज है।
पड़कन:
बारात जब रवाना होती है तो दुल्हे के एक पड़कन नियुक्त होता है जिसमे बड़ा भाई, काका या मामा आदि रहते है। बारात पहले ऊँटो पर जाती थी आजकल गाडि़यों में जाती है।
बरात का वधू के घर पहुंचना:
बरात (जान) के वधू के घर पहुंचने पर ठहरने के लिए डेरों की व्यवस्था होती है। वहां जान रुक जाती है। रुकने के बाद जानियों में से चार-पांच आदमी एक खेजड़ी की डाली लेकर वधू पक्ष वालों को सूचना देने के लिए घर में जाते है। वहां पर उनका नाम, पता, लिखकर वधू के घर वाले उनको एक नारियल, घी-रोटी का चूरमा बनाकर (कंवर कलेवा) थाली देते है। जान वाले थाली लेकर डेरे मे वर को भोजन कराते है। बाकी जानी पठ्ठे (तंबू) मे जाकर भोजन करते है।
सभी बारातियों के भोजन करने के उपरान्त वधू के घर वाले बारात मे गायणा व नाई से सूचना करवाते हैं कि पडोला यानि (कपड़ा, गहना आदि) लेकर आवे।
पडोला देने के बाद जान को गुलेरा पर बुलाते है। गुलेरा में नाई वर को गुड़ का रस पिलाता है। वधू पक्ष की चार-पांच लड़कियां वर की हल्दी पीठी उतारती है। उसके बाद सासू आरती करती है। तत्पश्चात् दुल्हा तोरण पर आता है तो बढ़बेड़ा बान्दता है। जिसमें वधू पक्ष की लड़कियां कोरी मटकी में पानी भर के लाती है। वर पक्ष वाले तलवार व बोरड़ी (बेरी) की एक छड़ी वधू पक्ष वालों को पकड़वाते है। वधू पक्ष वाले पानी से भरी हुई मटकी व तलवार छड़ी को बान के तोरण के नीचे से वर से बांधते है।
जिसमें तलवार वर को संकेत दे रही है कि आप जो शादी करने जा रहे है वह तलवार की तरह सत्य की धार पर चलना है। छड़ी संकेत दे रही है कि आप जो शादी कर रहे वह कांटो के ताज के समान है, आप ध्यानपूर्वक इसको निभाना। पानी की तरह निर्मल रहना।
उसके बाद दुल्हा पीढ़े पर आकर बैठ जाता है। उसका उतर की तरफ मुख रहता है। पहले वधू को दायें हाथ की तरफ लाकर बैठा दिया जाता है। आधा विवाह होने के बाद वधू को बायें हाथ की तरफ बैठाते है जिससे यह संकेत मिलता है कि यह पत्नी रूप मे स्थाई जीवन बिताएगी। विवाह पूर्ण होने पर पहले सासू आरती करती है। आरती के बाद कन्या को दान दिया जाता है। जिसमें कपड़े, रूपये तथा छोटी बछड़ी दान मे दी जाती है। उसके बाद कन्या व वर को कहीं-कहीं पर अग्नि परिक्रमा भी करवाई जाती है। मारवाड़ में अग्नि परिक्रमा का रिवाज नहीं है, केवल अग्नि पूजा ही की जाती है। उसके बाद हवन के पास बैठाकर पाहल दिया जाता है। पाहल पहले वर को देते हैं तथा बाद में वधू को देते हैं। इसके बाद वर को खड़ा करके ध्रुव तारे की शपथ दिलाई जाती है। जिस तरह ध्रुव तारा स्थाई है उसी तरह आपकी शादी जीवन भर स्थाई रहे। उसके बाद वधू घर मे चली जाती है। दुल्हा वहीं पर व्यवस्था के अनुसार अपने स्थान पर बैठ जाता है। कहीं कहीं ऐसा रिवाज है कि उसी समय सीख (विदाई) देते है। कहीं पर दूसरे दिन सुबह को सीख (विदाई) देते है। सीख (विदाई) देने पर वर-वधू को अपने घर ले जा कर रीति-रिवाज के अनुसार बधारकर घर मे ले लेता है। उसके बाद वर-वधू दोनों ही व्यवहारिक जीवन जीते है।
बिश्नोई विवाह पद्धति न केवल धार्मिक, सांस्कृतिक बल्कि सामाजिक एकता का भी प्रतीक है। इसमें पर्यावरण संरक्षण (खेजड़ी की पूजा), वैज्ञानिक दृष्टिकोण (गोधूली वेला का चयन) और सामुदायिक सहयोग (डोरा बांधना) जैसे तत्व समाहित हैं। यह न केवल दो जीवनों का मिलन है, बल्कि प्रकृति और समाज के प्रति समर्पण का भी प्रतीक है। विवाह संस्कार का प्रत्येक चरण यह संदेश देता है कि जीवन में सत्य, मर्यादा और धार्मिक परंपराओं का पालन करते हुए गृहस्थ जीवन को सफल बनाया जाए।