गुरु जम्भेश्वर एवं श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेषांक (Guru Jambheshwar and Shri Krishna Janmashtami Special Post):
नैतिक संतुलन (ऋत) की स्थिति रहने पर ही जगत् की प्रतिष्ठा बनी रहती है और इस संतुलन के अभाव में संसार का विनाश अवश्यंभावी है। सृष्टि के रक्षक भगवान इस संतुलन की सुव्यवस्था में सदैव दत्तचित रहते हैं। 'ऋत के स्थान पर 'अमृत' की, धर्म के स्थान पर अधर्म की जब कभी प्रबलता होती है, तब भगवान का अवतार होता है। ऐसा स्वयं भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं:
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत,
अभ्युथानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।
(श्रीमद् भगवद्गीता चतुर्थ अध्याय श्लोक 7 एवं 8)
जां जां शैतान करे उफारूं, तां तां मह तन फलियों।। (शब्दवाणी शब्द 66)
हालांकि ईश्वर के अवतरण के लिए ये उद्देश्य गौण ही कहे जा सकते हैं क्योंकि सर्वैश्यर्वसंपन्न, अपराधीन, कर्मकालादिकों के नियामक तथा सर्वनिरपेक्ष भगवान के लिए दुष्टदलन और शिष्टरक्षण का कार्य तो इतर साधनों से भी सिद्ध हो सकता है, भगवान के अवतार का मुख्य उद्देश्य इससे सर्वथा भिन्न रूप में श्रीमद भागवत में प्रकट किया गया है:
नृणां निःश्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवती भुवि। अव्ययस्याप्रमेयस्य निर्गुणास्य गुणात्मनः ।।
मानवों को साधन निरपेक्ष मुक्ति का दान ही भगवान के प्राकट्य का जागरूक प्रयोजन है। भगवान स्वतः अपने लीलाविलास से, अपने अनुयह से, साधकों को बिना किसी साधना की अपेक्षा रखते हुए, मुक्ति प्रदान करते हैं-अवतार का यही मौलिक तथा प्रधान उद्देश्य है। गुरु महाराज जांभोजी स्वयं अपने शब्दवाणी में भक्त प्रहलाद के वरदान पूर्ण करने के संबंध में प्रत्येक युग के स्वयं के अवतार के बारे में उल्लेख करते हुए कहते हैं:
ज्ञान न रिंदो बहुगुण चिंदो पहलू प्रहलादा आप पतलीयो ।
दूजा काजे काम बिटलियो, खेत मुक्त ने पंच करोड़ी।। 58
त्रेतायुगः
खेत मुक्त ले सात करोड़ी, परशुराम के हुकुम के मूवा।
सेतो कृष्ण पियारा, ताको तो वैकुंठे वासौ।। 58
द्वापरयुग:
काफिर खानो बुद्धि भराड़ो, खेत मुक्त ले, नव करोड़ी।
राव युधिष्ठिर से तो कृष्ण पियारा, ताको तो वैकुंठे वासो।। 58
कलयुग:
बारां काजे हरकत आई, ताते बहुत भई कसवारु।। 58
अर्थात् अपने भक्तों के कल्याण के लिए ईश्वर स्वयं के अवतार लेने तक क्या-क्या रचना रच देते हैं यही महत्वपूर्ण है। भगवान कृष्ण एवं गुरु महाराज जांभोजी (JambhoJi) की जन्म तिथि एक ही दिवस को मनाई जाती है। क्या खास है जन्माष्टमी के दिन में? क्यों सब आनंद विऔर हो जाते हैं इस दिन? क्या कारण है कि कृष्ण द्वापर युग में जन्म लेकर भी अद्यावधि पर्यंत अमर है और हम सौ वर्ष जीने से पूर्व ही मर जाते हैं? इस आलेख के माध्यम से हम प्रयास करेंगे कृष्ण चरित्र को जानने का। समझना यह भी समीचीन होगा कि क्यों आखिर जन्माष्टमी को मोह रात्रि कहते हैं? जीवन और अमरता के पहलुओं को समझने का भी प्रयास करेंगे। श्रीकृष्ण चरित्र से जोड़कर इन पर महा चिंतन करेंगे ताकि हम लोकव्यवहार में कुशलता को शायद और अधिक परिष्कृत कर सके।
जन्म लेना एक सामान्य बात है या यूं कहें एक छोटी सी घटना है लेकिन जिंदगी को जीना उससे कहीं विशिष्ट घटना है। जन्म को जीवन में बदलने का अनूठा और सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है श्री कृष्ण का जीवन। भौतिक दृष्टि से तो उनके जन्म और हमारे जन्म में कोई विशेष अंतर नहीं दिखता और आध्यात्मिक दृष्टि से भी हम उन्हीं के अंश ठहरते हैं क्योंकि उन्हें अव्यय पुरुष एवं सृष्टि का सृजन कर्ता माना जाता है लेकिन श्री कृष्ण के जीवन जीने का तरीका उनके जन्म को अत्यधिक महत्वपूर्ण बना देता है। श्रीराम का जन्म मध्यान्ह में जबरदस्त प्रकाश पुंज में हुआ जबकि श्री कृष्ण का अर्ध रात्रि के अंधकार में। फिर भी इन दोनों के जन्म ने यह संदेश दे दिया कि हमारी जिंदगी के प्रकाश पुंज में ईश्वर के दर्शन होंगे और अंधकार की काली छाया में भी अथवा अवगुणों के अंधेरेपन में भी प्रभु का अवतार होगा यही कारण है कि श्री कृष्ण का जन्म सर्वसमभाव को अभिव्यक्त करता है। श्रीकृष्ण ने अपने जीने का भूरि भूरि आनंद लिया मगर हम उस आनंद से वंचित क्यों हो रहे हैं? यह जानने के लिए हमें भगवान कृष्ण के जीवन चरित्र को गहराई से समझाना पड़ेगा।
द्वापर युग में भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी, मध्य रात्रि के अभिजीत मुहूर्त में जन्म लेते ही श्रीकृष्ण ने अपने मामा एवं राजा कंस का वध करके यह संदेश दे दिया कि वे प्राणियों का दुःख, दर्द और अघ मिटाने ही संसार में आए हैं। उन्होंने पार्थ को गीता का उपदेश देकर कर्म का संदेश दिया था। वे ताउम्र प्रसन्नचित रहे। तटस्थ रहते हुए भी धर्म का व्यावहारिक रूप समझा गए जैसे प्रकृति के हर तत्व आकाश, वायु, तेज, जल, धरणी का अपना संगीत है वैसे ही श्रीकृष्ण हंसते, गाते रहे और सभी का मन प्रसन्न करते रहे। उनके मन में हमेशा दूसरों के लिए करने का भाव बना रहा यही कारण है कि सुदामा हो अथवा विदुर गोपिया हो अथवा राधा सबके लिए गोपाल तो सदा ही आनंद के पर्याय बन रहे। उन्होंने हर स्थिति को हंसते खेलते जिया तभी तो वह परिस्थितियों का कभी शिकार नहीं बने, कभी स्वयं को लाचार नहीं माना इसी कारण वे अव्यय पुरुष कहे जाते हैं और अव्यय पुरुष की तो प्रथम कला ही आनंद है आनंद के बिना तो सृष्टि का निर्माण भी असंभव है। कुल मिलाकर उनका चरित्र ही अद्वितीय था यह हम समझ रहे होंगे इसको और अधिक समझने में महाभारत हमारी मदद कर सकता है।
महाभारत में आयु और ज्ञान की दृष्टि से किसी एक व्यक्ति का नाम अलग किया जाए तो हम भीष्म पितामह की तुलना श्री कृष्ण के साथ कर सकते हैं। ये कौरवों एवं पांडवों के पितामह थे और इन्होंने आयु ज्ञान की दृष्टि से भयंकर व्रत धारण किया था इसी कारण इनका नाम देवव्रत से बदलकर भीष्म (भयंकर) पड़ गया। पूरे महाभारत से हम समझ सकते हैं की मात्र सोच के अंतर ने इन दोनों में से एक को भुला दिया और दूसरे की हम आज भी पूजा करते हैं। उनके जन्म दिवस को भी नाचते गाते हैं। हालांकि त्याग और गुण संपन्नता की दृष्टि से पितामह भीष्म भी उतने ही सब के आदरणीय थे फिर भी जो स्थान श्रीकृष्ण को प्राप्त हुआ वह इतिहास के पन्नों में पितामह भीष्म कभी हासिल नहीं कर सके। विद्वान् राजेंद्र शंकर भट्ट सोच विचार के अंतर को इसका कारण मानते हैं। तर्क है:-
पितामह भीष्म ने द्रौपदी से कहा था पुरुष अर्थ, धन का दास होता है किंतु अर्थ किसी का दास नहीं है। जब राज्यसभा में द्रोपदी को निर्वस्त्र किया जा रहा था तब भीष्म भी धन का दास होने के कारण अपने स्वामी दुर्योधन के विरुद्ध कुछ नहीं बोल पाए? जब दास हो गए तो सभी महान् गुणों का हनन हो गया और अपने देखते-देखते भी अपनी पुत्रवधू को नग्न होने से नहीं बचा सके किंतु श्री कृष्ण ने द्रौपदी का चीर इतना बढ़ा दिया कि सौ कौरवों सहित सभी योद्धा उसे खींचते खर्खीचते हांफ गए, चिर निद्रा में सो गए और चीर का छौर नहीं पा सके। श्रीकृष्णा किसी के दास नहीं थे यही कारण है कि उनका गौरव आज भी बरकरार है।
दूसरा उदाहरण है महाभारत के भीष्म पर्व का पितामह भीष्म अत्याचारी राजा के समक्ष कुछ भी करने में असमर्थ होते हुए कहते हैं:- "राजा ईश्वर का रूप है उसके किसी कृत्य का विरोध नहीं किया जा सकता" मगर श्रीकृष्ण कहते हैं मैंने प्रजा हित के लिए मामा और राजा कंस का भी परित्याग कर दिया। भगवान राम ने भी लोकानुरंजन के लिए गर्भवती सीता का धर्मपत्नी होने पर भी परित्याग कर दिया। यही तो चारित्रिक वैषम्य इन महान् लोगों को पूजनीय बना गया। तात्पर्य यह है कि परंपराएं शास्त्र सम्मत भी क्यों न हो? अगर वर्तमान संदर्भ में शुष्क बनकर समाज का बोझ बन गई है तो उन्हें तोड़ देना चाहिए तभी महान् आनंद की प्राप्ति होगी। श्रीकृष्ण ने तो यह भी बाल अवस्था में ही कर दिखाया।
श्री कृष्ण का चारित्रिक आकर्षण इतना मोहक था कि वे जहां भी गए भक्त उनको स्वामी मन कर लिपट गए। स्त्रियों ने अपना पति मान लिया। इस मोहक व्यक्तित्व के क्रम में ही इतिहास की दंत कथाएं उनके कई रानियां होने की बात करती है। इसी कारण पाश्चात्य लोगों ने उनको करप्ट कहने का भी दुस्साहस किया मगर उनका भ्रम विवेकानंद ने काफी हद तक दूर किया इस प्रश्न के उत्तर पर पहले तो वह मौन रहे फिर शिकागो धर्म सम्मेलन के श्रोताओं को अपने भाषण से इतना मंत्र मुक्त कर दिया कि वे अपने नियत स्थल से विवेकानंद के पीछे-पीछे आते रहे। तब रुक कर उन्हें पूछा कि आप अपने नियत स्थल से मेरे पीछे क्यों चले? क्या आप भी करप्ट हैं? उनको समझ में आ गया की गोपियां और भक्त क्यों कृष्ण पर अनुरक्त थे? अब उनको पता चल गया कि ना तो कृष्ण को पति मानने वाली स्त्रियां करप्ट थी, न ही उनको स्वामी मानने वाले भक्त। उनके अद्वितीय चरित्र के कारण ही उनके आसपास के लोग माया जाल से विमुख होकर उन्हीं के सान्निध्य में आनंद और गौरव का अनुभव करते थे। मोह और आकर्षण के द्वारा संपूर्ण सृष्टि के प्राणियों को मोहित कर लेने वाले श्रीकृष्ण के इसी प्रभाव के कारण जन्माष्टमी को वेदों में मोहरात्रि के उपनाम से जाना जाता है।
वेद वर्ष की चार रातों को बड़ी मानते हैं दीपावली की कालरात्रि, शिवरात की महारात्रि, कृष्ण जन्माष्टमी की मोहरात्रि और होली की अहोरात्रि। इस जन्माष्टमी के व्रत को व्रतराजष् माना गया है जिससे प्राणी अनेक व्रतों से प्राप्त होने वाले महान् पुण्य को प्राप्त करते हैं। विधिपूर्वक पालन अपेक्षित है। यह महापर्व महाचिंतन का भी पर्व है हमें हमारे कार्यों का प्रतिवर्ष इस दिन चिंतन अवश्य करना चाहिए। परिवार, समाज, राष्ट्र के सद् चरित्र की उन्नति हेतु हमें श्री कृष्ण चरित्र का अनुकरण करना चाहिए तभी हम इस महा चिंतन के महापर्व की मोह रात्रि के सदआनंद से विभोर हो पाएंगे। हम अज्ञानी तथा अबोध बालक उनके चरित्र को समझने में पूर्ण रूप से कभी समर्थ नहीं हो सकते मगर कमधिक रूप से ही सही उनका अनुकरण करते हुए उन पर टीका टिप्पणी के बजाय उन्हीं की शरण में जाएं तो बेहतर होगा शरण में जाने पर तो उन्होंने बड़े-बड़े अपराधियों को भी माफ किया है वे स्वयं गीता में कहते हैं:-
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ।।9.30।।
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः ।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ।।9.32।।
हे अर्जुन अतिशय दुराचारी भी मेरी शरण में आने पर साधु मानने योग्य है क्योंकि उसने दृढ़ निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान कुछ नहीं। अतः "हे परंतप! जो मेरी शरण में आ गया वह चाहे स्त्री हो शूद्र, वैश्य अथवा चांडाल हो या पापी सभी की परम गति हो जाती है।
भगवान कृष्ण और जांभोजी (Jambho Ji) एक ही है। जहां कृष्ण हंसते, गाते, बांसुरी बजाते, मनुष्य-प्रकृति को एकाकार आनंद की अनुभूति प्रदान करते हैं, व्यक्ति को संघर्ष करने और हक की लड़ाई लडने के लिए प्रेरणा से भर देते हैं वहीं गुरु महाराज जांभोजी व्यक्ति को सुकर्मों से श्रेष्ठ बनने पर बल देते हैं मानवीय कल्याण की बात करते हैं और इसके लिए जांभोजी ने हमेशा ही कृष्ण चरित्र को न केवल आमुख माना है बल्कि वे बार-बार कहते हैं कि कृष्ण चरित्र अपनाए बिना कुछ भी संभव नहीं है उनकी कृपा दृष्टि परम आवश्यक है:
"कृष्ण चरित बिन काचे करवे, रहो न रहसी पाणी।" 1
"कृष्ण चरित बिन क्यूं बाघ बिडारत गाई।" 14
"जाटा हूंता पात करिलो यह कृष्ण चरित परिवाणो।" 15
"कृष्णी माया चौखंड कृशाणी जम्मूदीप चरिलो।" 29
"कृष्णचरित बिन नहीं उतरवा पारूं।" 32
"घड़े बरसात बहु मेहा, तिही मां कृष्ण चरित बिन पड्यो न पड़सी पाणी।" 42
इस प्रकार हमें इस महा चिंतन के महापर्व की मोहरात्रि पर मात्र प्रसाद चढ़ाकर भगवान को खुश करने की इतिश्री के बजाय कृष्ण चरित्र को अपनाते हुए लोकधर्म का पालन सुनिश्चित करने का प्रयास करना चाहिए। एक बार पुनः जन्माष्टमी की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं और खेजड़ली के त्यागी शूरमाओं को सादर श्रद्धांजलि।
डॉ भंवरलाल उमरलाई
सदस्य विषय समिति
अखिल भारतीय बिश्नोई महासभा एवं कार्यकारिणी सदस्य
जाम्भाणी साहित्य अकादमी बीकानेर
मोबाइल नं. 9587653744